बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
पानी को देखने के लिए मैं तरस गया
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वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
जी में ठानी है कि जीना है बहर-हाल मुझे
इस तरह सोई हैं आँखें जागते सपनों के साथ
सराए छोड़ के वो फिर कभी नहीं आया
यूँ है तिरी तलाश पे अब तक यक़ीं मुझे
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ
कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में
दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
अपना सारा बोझ ज़मीं पर फेंक दिया