जी में ठानी है कि जीना है बहर-हाल मुझे
जिस को मरना है वो चुप-चाप ही मरता जाए
Anwar Masood
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Habib Jalib
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Jaun Eliya
Wasi Shah
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नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
मुझ से नफ़रत है अगर उस को तो इज़हार करे
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
इस तरह सोई हैं आँखें जागते सपनों के साथ
सज़ा ही दी है दुआओं में भी असर दे कर
न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए
बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
एक मुख़्तलिफ़ कहानी
मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा
है जुस्तुजू अगर इस को इधर भी आएगा