जिस घड़ी आया पलट कर इक मिरा बिछड़ा हुआ
आम से कपड़ों में था वो फिर भी शहज़ादा लगा
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जिला-वतन हूँ मिरा घर पुकारता है मुझे
रात को बाहर अकेले घूमना अच्छा नहीं
हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले
कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
मिशअल-ए-उम्मीद थामो रहनुमा जैसा भी है
ग़ैर हो कोई तो उस से खुल के बातें कीजिए
ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
तू तो उन का भी गिला करता है जो तेरे न थे
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को
कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में