हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले
ज़बाँ पे अच्छे दिनों का ही ज़ाइक़ा रखना
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नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
सूरज नए बरस का मुझे जैसे डस गया
अगरचे फूल ये अपने लिए ख़रीदे हैं
इस तरह सोई हैं आँखें जागते सपनों के साथ
सज़ा ही दी है दुआओं में भी असर दे कर
मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा
कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
फ़स्ल-ए-गुल में भी दिखाता है ख़िज़ाँ-दीदा-दरख़्त
ताक़ पर जुज़दान में लिपटी दुआएँ रह गईं
ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में
न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए