ताक़ पर जुज़दान में लिपटी दुआएँ रह गईं
चल दिए बेटे सफ़र पर घर में माएँ रह गईं
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कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
यूँ है तिरी तलाश पे अब तक यक़ीं मुझे
तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा
इस तरह सोई हैं आँखें जागते सपनों के साथ
सूरज नए बरस का मुझे जैसे डस गया
सराए छोड़ के वो फिर कभी नहीं आया
हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले