न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
गए हुए के लिए दिल में कुछ जगह रखना
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दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा
है जुस्तुजू अगर इस को इधर भी आएगा
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
इस तरह सोई हैं आँखें जागते सपनों के साथ
मैं शीशा क्यूँ न बना आदमी हुआ क्यूँकर
तेरी आँखों की चमक बस और इक पल है अभी
किसी के हक़ में सही फ़ैसला हुआ तो है
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
ताक़ पर जुज़दान में लिपटी दुआएँ रह गईं
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा
हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले