इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
थक गए हो तो मिरे काँधे पे बाज़ू रक्खो
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उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
अगरचे फूल ये अपने लिए ख़रीदे हैं
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा
मिशअल-ए-उम्मीद थामो रहनुमा जैसा भी है
न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए
मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा
बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
अपना सारा बोझ ज़मीं पर फेंक दिया
किसी के हक़ में सही फ़ैसला हुआ तो है
कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
है जुस्तुजू अगर इस को इधर भी आएगा
तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक