अगरचे फूल ये अपने लिए ख़रीदे हैं
कोई जो पूछे तो कह दूँगा उस ने भेजे हैं
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ताक़ पर जुज़दान में लिपटी दुआएँ रह गईं
सराए छोड़ के वो फिर कभी नहीं आया
यूँ है तिरी तलाश पे अब तक यक़ीं मुझे
फ़स्ल-ए-गुल में भी दिखाता है ख़िज़ाँ-दीदा-दरख़्त
एक मुख़्तलिफ़ कहानी
चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया
न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
जी में ठानी है कि जीना है बहर-हाल मुझे
हाथ हाथों में न दे बात ही करता जाए
तू तो उन का भी गिला करता है जो तेरे न थे
बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ