कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में
सफ़र तमाम हुआ और कुछ नहीं देखा
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कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
सूरज नए बरस का मुझे जैसे डस गया
है जुस्तुजू अगर इस को इधर भी आएगा
हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ
किसी के हक़ में सही फ़ैसला हुआ तो है
चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया
बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
जिस घड़ी आया पलट कर इक मिरा बिछड़ा हुआ
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को