ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
जैसे थे लोग वैसा ही होना पड़ा मुझे
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न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया
रात को बाहर अकेले घूमना अच्छा नहीं
जिला-वतन हूँ मिरा घर पुकारता है मुझे
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
मैं शीशा क्यूँ न बना आदमी हुआ क्यूँकर