आज की शाम गुज़ारेंगे हम छतरी में
बारिश होगी ख़बरें सुन कर आया हूँ
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शत्तुल-अरब
ग़मों की भीड़ में रस्ता बना के चलता हूँ
ज़ीस्त-मिज़ाजों का नौहा
यार परिंदे!
सिर्फ़ आज़ार उठाने से कहाँ बनता है
टूटी मेज़ और जली किताबें रह जाएँगी
रख़्त-ए-गुरेज़ गाम से आगे की बात है
हमारा आइना बे-कार हो गया तो फिर!
ख़्वाजा-सरा
मेरा और फूलों का रिश्ता टूट गया
कफ़ील-ए-साअ'त-ए-सय्यार रक्खा होता है