कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
अजब है रंग-ए-चमन जा-ब-जा उदासी है
अपनी ख़बर, न उस का पता है, ये इश्क़ है
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है