असातीरी नज़्म
बादशाह तेरी दहलीज़ का दरबान है
ज़मीन सिमट कर मेरे तलवे से आ लगी
मैं ने बाग़ की जानिब पीठ कर ली
मैं ने अपना वजूद गठड़ी में बाँध लिया
शहर की गलियाँ चराग़ों से भर गईं
मैं ज़ेर-ए-लब अपना शजरा-ए-नसब दोहरा रहा था
वो हातिफ़ की ज़बान में कलाम करने लगी