'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव
तुम से देखी जाए तो देखो मुझ से न देखी जाए
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बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले
मुहीत-ए-पाक पे मौज-ए-हुनर में रौशन हूँ
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
अभी रंग-ए-रब्त अयाँ है क़ौस-ए-ख़याल से
छोड़ गया वो नक़्श-ए-हुनर अपना तुग़्यानी में
इक गहरी चुप अंदर अंदर रूह में उतरी जाए
भटक जाएगा दिल अय्यारी-ए-इदराक से निकलें
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
चार-सू सैल-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अख़्तर तेरा
क्या अब मिरी कहानी में
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना