कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब
कौन समझे दर कभी दीवार कर लेना मिरा
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लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
ख़ूब है इश्वा ये उस का ये इशारत उस की
छोड़ गया वो नक़्श-ए-हुनर अपना तुग़्यानी में
ये ज़ाद-ए-राह किसी मरहले में रख देना
उस के जुनूँ का ख़्वाब है किन ताबीरों में
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
हर्फ़ को लफ़्ज़ न कर लफ़्ज़ को इज़हार न दे
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
फिर इक तीर सँभाला उस ने मुझ पे नज़र डाली
जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है