जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
बातें उस की वज़्न से ख़ाली लहजा भारी-भरकम है
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ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर
अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो
सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है
मेरे लिए क्या शोर भँवर का क्या मौजों की रवानी
इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग
डूबना है उस से ये इक़रार कर लेना मिरा
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
क्या अब मिरी कहानी में
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से