अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
उस के होंटों पर चाहत का फूल खिला भी कितनी देर
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फिर इक तीर सँभाला उस ने मुझ पे नज़र डाली
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
भटक जाएगा दिल अय्यारी-ए-इदराक से निकलें
जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
मेरे लिए क्या शोर भँवर का क्या मौजों की रवानी
क्या अब मिरी कहानी में
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से
और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ