अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
इक बात कह गया वो मगर कितने काम की
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उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
ये ज़ाद-ए-राह किसी मरहले में रख देना
सुलगने राख हो जाने का डर क्यूँ लग रहा है
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले
इक गहरी चुप अंदर अंदर रूह में उतरी जाए
पल पल मिरी ख़्वाहिश को फिर अंगेज़ किए जाए
चार-सू सैल-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अख़्तर तेरा
'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव
घुट के मर जाने से पहले अपनी दीवार-ए-नफ़स में दर निकालो
उस पार बनती मिटती धनक उस के नाम की
ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर