उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
मेरे नाम का तीर है कितने तीरों में
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हर्फ़ को लफ़्ज़ न कर लफ़्ज़ को इज़हार न दे
थी मिरी हम-सफ़री एक दुआ उस के लिए
उट्ठे ग़ुबार-ए-शोर-ए-नफ़स तो वहशत मत करना
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव
बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले
जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है
और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर