और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ
ज़ेहन में फिर इक सम्त बिखेरी राहगुज़र डाली
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कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब
अभी रंग-ए-रब्त अयाँ है क़ौस-ए-ख़याल से
मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर
ख़ला में हो इर्तिआश जैसे कुछ ऐसा मंज़र है और मैं हूँ
चार-सू सैल-ए-सिपाह-ए-मह-ओ-अख़्तर तेरा
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़