इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग
लश्कर की कसरत पे न जाना बैअत मत करना
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अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो
अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
न साथ आ मिरे मैं गिरते फ़ासलों में हूँ
पल पल मिरी ख़्वाहिश को फिर अंगेज़ किए जाए
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
क्या अब मिरी कहानी में
डूबना है उस से ये इक़रार कर लेना मिरा
सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू
जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है
नवाह-ए-दिल में ये मेरी मिसाल जलते रहें