तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो
अभी तो नश्शा सा आँखों में इंतिज़ार का है
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मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर
ये भी कोई बात कि सिर्फ़ तमाशा कर
लफ़्ज़ों का नैरंग है मेरे फ़न के जादू से
और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ
इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग
दिए मुंडेरों के रौशन क़तार होने लगे
तैरता मौज-ए-हवा सा आसमानों में कहीं
तुम आ गए हो तुम मुझ को ज़रा सँभलने दो
बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले
इक गहरी चुप अंदर अंदर रूह में उतरी जाए
जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार
शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या