आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा
मैं ख़ुद को देखता रहा मैं ख़ुद को सोचता रहा
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दिल ये कहता है हार कर देखें
ऐ अक़्ल नहीं आएँगे बातों में तिरी हम
अपने अंदर के अंधेरे को जलाया मैं ने
उस बार उजालों ने मुझे घेर लिया था
ख़्वाब में तोड़ता रहता हूँ अना की ज़ंजीर
सुलगती धूप में जल कर फ़क़ीर-ए-शब तिरी ख़ाक
फ़सील-ए-शहर से क्यूँ सब के सब निकल आए
हम ज़ब्त की तारीख़ के हैं बाब 'रशीदी'
तू मुझे ज़हर पिलाती है ये तेरा शेवा
अब इस से पहले कि रुस्वाई अपने घर आती
आज कुछ सूरत-ए-अफ़्लाक जुदा लगती है
ये हिजरतों के तमाशे, ये क़र्ज़ रिश्तों के