सुलगती धूप में जल कर फ़क़ीर-ए-शब तिरी ख़ाक
क्यूँ ख़ान-क़ाह-ए-शब-ए-बे-कराँ मैं बैठ गई
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ये मोजज़ा है कि मैं रात काट देता हूँ
वो चाहते हैं कि हर बात मान ली जाए
अब इस से पहले कि रुस्वाई अपने घर आती
ज़िंदगी हम तिरे कूचे में चले आए तो हैं
आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा
ये हिजरतों के तमाशे, ये क़र्ज़ रिश्तों के
मैं कोई दश्त मैं दीवार नहीं कर सकता
इसी जवाब के रस्ते सवाल आते हैं
ऐ अक़्ल नहीं आएँगे बातों में तिरी हम
उस बार उजालों ने मुझे घेर लिया था