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हम ज़ब्त की तारीख़ के हैं बाब 'रशीदी'
दिल ये कहता है हार कर देखें
एक हंगामा शब-ओ-रोज़ बपा रहता है
दरून-ए-ज़ात हुजूम-ए-अज़ाब ठहरा है
सुलगती धूप में जल कर फ़क़ीर-ए-शब तिरी ख़ाक
वो जब भी पुकारेगा यहाँ आन रहेंगे
इश्क़ में लज़्ज़त-ए-आज़ार निकल आती है
आसार-ए-जुनूँ बे-सर-ओ-सामाँ नहीं होते
ये हिजरतों के तमाशे, ये क़र्ज़ रिश्तों के
ऐ अक़्ल नहीं आएँगे बातों में तिरी हम
लगता है तबाही मिरी क़िस्मत से लगी है
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ में बैठ गई