ख़्वाब में तोड़ता रहता हूँ अना की ज़ंजीर
आँख खुलती है तो दीवार निकल आती है
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उस बार उजालों ने मुझे घेर लिया था
एक हंगामा शब-ओ-रोज़ बपा रहता है
आसार-ए-जुनूँ बे-सर-ओ-सामाँ नहीं होते
दरून-ए-ज़ात हुजूम-ए-अज़ाब ठहरा है
इश्क़ में लज़्ज़त-ए-आज़ार निकल आती है
ज़िंदगी हम तिरे कूचे में चले आए तो हैं
इसी जवाब के रस्ते सवाल आते हैं
ऐ अक़्ल नहीं आएँगे बातों में तिरी हम
ये हिजरतों के तमाशे, ये क़र्ज़ रिश्तों के
सुलगती धूप में जल कर फ़क़ीर-ए-शब तिरी ख़ाक