जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
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मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं
यही ज़िंदगी मुसीबत यही ज़िंदगी मसर्रत
हमीं हैं सोज़ हमीं साज़ हैं हमीं नग़्मा
शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं
दाना-ए-ग़म न महरम-ए-राज़-ए-हयात हम
कूचा-ए-यार में अब जाने गुज़र हो कि न हो
मरने की दुआएँ क्यूँ माँगूँ जीने की तमन्ना कौन करे
फिर इशरत-ए-साहिल याद आई फिर शोरिश-ए-तूफ़ाँ भूल गए
ऐश से क्यूँ ख़ुश हुए क्यूँ ग़म से घबराया किए
सर्व-ओ-समन भी मौज-ए-नसीम-ए-सहर भी है
बड़े नाज़ से आज उभरा है सूरज