हमीं हैं सोज़ हमीं साज़ हैं हमीं नग़्मा
ज़रा सँभल के सर-ए-बज़्म छेड़ना हम को
Gulzar
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चमन में थे जो चमन ही की दास्तान सुनते
जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
जो आग लगाई थी तुम ने उस को तो बुझाया अश्कों ने
बीते हुए दिनों की हलावत कहाँ से लाएँ
मुस्कुरा कर डाल दी रुख़ पर नक़ाब
तवाइफ़
फिर इशरत-ए-साहिल याद आई फिर शोरिश-ए-तूफ़ाँ भूल गए
तवहहुम
मौत
अभी सुमूम ने मानी कहाँ नसीम से हार
तिरी रुस्वाई का है डर वर्ना
ग़मों की दुनिया को रौंद डालें नशात-ए-दिल पाएमाल कर लें