मुस्कुरा कर डाल दी रुख़ पर नक़ाब
मिल गया जो कुछ कि मिलना था जवाब
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इक प्यास भरे दिल पर न हुई तासीर तुम्हारी नज़रों की
फिर इशरत-ए-साहिल याद आई फिर शोरिश-ए-तूफ़ाँ भूल गए
दिल-ए-नाकाम थक के बैठ गया
कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं
मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
फ़ितरत एक मुफ़लिस की नज़र में
तुझी से दाद-ए-वहशत लें तुझी को मेहरबाँ कर लें
तिरी रुस्वाई का है डर वर्ना
शरीक-ए-महफ़िल-ए-दार-ओ-रसन कुछ और भी हैं
दाना-ए-ग़म न महरम-ए-राज़-ए-हयात हम
दाग़-ए-ग़म दिल से किसी तरह मिटाया न गया