कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
ख़ुदा हैं कैसे कि पैग़ाम्बर नहीं रखते
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कुफ्र-ओ-इस्लाम में तौलें जो हक़ीक़त तेरी
अब के बहार-ए-हुस्न-ए-बुताँ है कमाल पर
अक्स-ए-रुख़-ए-गुलगूँ से तमाशा नज़र आया
आईने के अक्स से गुल सा बदन मैला हुआ
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
दुश्मन की मलामत बला है
दीदार का मज़ा नहीं बाल अपने बाँध लो
किसी से उठ नहीं सकने का बोझ मस्तों का
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
सख़्त-जानी का सही अफ़्साना है