शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
जो कि पर्दे में भी उर्यां न हुआ था सो हुआ
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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Anwar Masood
Gulzar
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
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मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया
हो गया हूँ मैं नक़ाब-ए-रू-ए-रौशन पर फ़क़ीर
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
आँखों में खटकती ही रही दौलत-ए-दुनिया
क़ैदी हूँ सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पहले
ऐ बुत जो शब-ए-हिज्र में दिल थाम न लेते
गालियाँ ज़ख़्म-ए-कुहन को देख कर देती हो क्यूँ
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे