अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
हर वक़्त 'मुनीर' आह-ओ-फ़रियाद में हूँ
इस शहर के नाम में है तश्दीद-ए-बला
आरे के तले मैं फर्रुख़ाबाद में हूँ
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उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
जर्राह के सामने खोला फोड़ा
सख़्त-जानी का सही अफ़्साना है
मैं क्या दिखाई देती नहीं बुलबुलों को भी
कुफ्र-ओ-इस्लाम ने मक़्सद को पहुँचने न दिया
किसी से उठ नहीं सकने का बोझ मस्तों का
बढ़ चला इश्क़ तो दिल छोड़ के दुनिया उट्ठा
तस्वीर-ए-ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़-ए-गुलफ़ाम ले गया
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं