सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
बिंत-उल-अनब से करने लगा शोख़ियाँ बसंत
Allama Iqbal
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ख़ाकसारी से जो ग़ाफ़िल दिल-ए-ग़म्माज़ हुआ
अब के बहार-ए-हुस्न-ए-बुताँ है कमाल पर
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
तस्वीर-ए-ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़-ए-गुलफ़ाम ले गया
ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
सदमे से बाल शीशा-ए-गर्दूँ में पड़ गया
बे फ़ाएदा रखता नहीं सर हाथों पर
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
जलसों में गुज़रने लगी फिर रात तुम्हारी