हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
रहमत है कसीर उस की मुसहफ़ है गवाह
ज़ाहिद नाजी हुआ और मुजरिम नारी
ला-हौल-वला-क़ुव्वता-इल्ला-बिल्लाह
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गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते
बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम
तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
बरहमन का'बे में आया शैख़ पहूँचा दैर में
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
ख़ाकसारों में नहीं ऐसी किसी की तौक़ीर
उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
अशआ'र मेरे सुन के वो ख़ामोश हो गया
करते हैं मस्जिदों में शिकवा-ए-मस्ताँ ज़ाहिद
आख़िर को राह-ए-इश्क़ में हम सर के बल गए