ख़ाकसारों में नहीं ऐसी किसी की तौक़ीर
क़द्द-ए-आदम मिरी ताज़ीम को साया उट्ठा
Habib Jalib
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उस बुत के नहाने से हुआ साफ़ ये पानी
तेग़-ए-अबरू के मुझे ज़ख़्म-ए-कुहन याद आए
ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े
कहते हैं सब देख कर बेताब मेरा उज़्व उज़्व
मैं रोता हूँ आह-ए-रसा बंद है
जान देता हूँ मगर आती नहीं
कुफ्र-ओ-इस्लाम में तौलें जो हक़ीक़त तेरी
तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
वो बहर-ए-करम जो मेहरबाँ हो जाए
लग गई आग आतिश-ए-रुख़ से नक़ाब-ए-यार में
मुझ को अपने साथ ही तेरे सुलाने की हवस