उस बुत के नहाने से हुआ साफ़ ये पानी
मोती भी सदफ़ में तह-ए-दरिया नज़र आया
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मलते हैं ख़ूब-रू तिरे ख़ेमे से छातियाँ
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
पाया तबीब ने जो तिरी ज़ुल्फ़ का मरीज़
जब कभी मस्की कटोरी क्या सदा पैदा हुई
दीदार का मज़ा नहीं बाल अपने बाँध लो
की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
आख़िर को राह-ए-इश्क़ में हम सर के बल गए
शबनम की है अंगिया तले अंगिया की पसीना
नशे में सहवन कर ली तौबा
हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
आमद तसव्वुर-ए-बुत-ए-बेदाद-गर की है