हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
तख़लिया चाहा तो दुनिया साफ़ ख़ाली हो गई
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हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ
और मुझ सा जान देने का तमन्नाई नहीं
सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
दिल ले के पलकें फिर गईं ज़ुल्फ़ों की आड़ में
आते नहीं हैं दीदा-गिर्यां के सामने
कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
सब्ज़ा तुम्हारे रुख़ के लिए तंग हो गया
मैं रोता हूँ आह-ए-रसा बंद है
सख़्त-जानी का सही अफ़्साना है