लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
आया अमल में इल्म-ए-निहानी पलंग पर
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जर्राह के सामने खोला फोड़ा
उम्र बाक़ी राह-ए-जानाँ में बसर होने को है
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
मुंडेरों पर छिड़क दे अपने कुश्तों का लहू ऐ गुल
सब ने लूटे उन के जल्वे के मज़े
जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया
गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
उस बुत के नहाने से हुआ साफ़ ये पानी