लगाईं ताक के उस मस्त ने जो तलवारें
दहान-ए-ज़ख़्म-ए-बदन से भी आए बू-ए-शराब
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करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
ज़ख़्मी न भूल जाएँ मज़े दिल की टीस के
अब के बहार-ए-हुस्न-ए-बुताँ है कमाल पर
झूटी बातें मुझे याद आईं जो उस की शब-ए-हिज्र
मैं जुस्तुजू से कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास
मज़मून अगर राह में हाथ आता है
मुंडेरों पर छिड़क दे अपने कुश्तों का लहू ऐ गुल
रोज़ दिलहा-ए-मै-कशाँ टूटे
होती है हार जीत पिन्हाँ बात बात में
जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम