बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम
ठोकरें खा के मिरी आँखों में ख़्वाब आता है
Anwar Masood
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
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Ahmad Faraz
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Habib Jalib
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उम्र बाक़ी राह-ए-जानाँ में बसर होने को है
बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे
जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया
आँखों में खटकती ही रही दौलत-ए-दुनिया
कलकत्ता को डाक में चला हूँ जो मैं आह
क्या मज़ा पर्दा-ए-वहदत में है खुलता नहीं हाल
ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना
राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ
आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़