बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
है अहल-ए-इल्म को तिरा तर्ज़-ए-बयाँ पसंद
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मेरी शम-ए-अंजुमन में गुल है गुल में ख़ाक है
करते हैं मस्जिदों में शिकवा-ए-मस्ताँ ज़ाहिद
पेच फ़िक़रे पर किया जाता नहीं
जिस रोज़ मैं गिनता हूँ तिरे आने की घड़ियाँ
झूटी बातें मुझे याद आईं जो उस की शब-ए-हिज्र
मुझ को अपने साथ ही तेरे सुलाने की हवस
बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे
बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
सदमे से बाल शीशा-ए-गर्दूँ में पड़ गया
फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
दम भर रहे हबाब-ए-नमत काएनात में