बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
मुँह मिरा मीठा किया जाता नहीं
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किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ'-रू
देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
करते हैं मस्जिदों में शिकवा-ए-मस्ताँ ज़ाहिद
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
असर कर के आह-ए-रसा फिर गई
तेरे हाथों से मिटेगा नक़्श-ए-हस्ती एक दिन
मज़मून अगर राह में हाथ आता है
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
अब के बहार-ए-हुस्न-ए-बुताँ है कमाल पर