फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
कलकत्ता की राह में ये दुख पाया है
क्या दर्द-ए-कनार ने सताया है 'मुनीर'
ये गुर्ग-ए-बग़ल राह में हाथ आया है
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रिंदों को पाबंदी-ए-दुनिया कहाँ
बरहमन का'बे में आया शैख़ पहूँचा दैर में
क़ैदी हूँ सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पहले
बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
कुफ्र-ओ-इस्लाम ने मक़्सद को पहुँचने न दिया
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
खाते हैं अंगूर पीते हैं शराब
बे फ़ाएदा रखता नहीं सर हाथों पर
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा