बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
अल्लाह-रे आलम तिरे बे-साख़्ता-पन का
Wasi Shah
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ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
बरहमन का'बे में आया शैख़ पहूँचा दैर में
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
उस बुत के नहाने से हुआ साफ़ ये पानी
उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
तुम्हारे घर से पस-ए-मर्ग किस के घर जाता
दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते