हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
तमाम मस्तों को रअशा है रू-ब-रू-ए-शराब
Gulzar
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राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया
क़ैद से नजात
गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
शबनम की है अंगिया तले अंगिया की पसीना
पाया तबीब ने जो तिरी ज़ुल्फ़ का मरीज़
आमद तसव्वुर-ए-बुत-ए-बेदाद-गर की है
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
मिल मिल गए हैं ख़ाक में लाखों दिल-ए-रौशन
जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
लगाईं ताक के उस मस्त ने जो तलवारें