गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
मिशअलें आप के साए से जला लेते हैं
Mir Taqi Mir
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Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
हाल-ए-पोशीदा खुला सामान-ए-इबरत देख कर
आख़िर को राह-ए-इश्क़ में हम सर के बल गए
किसी से उठ नहीं सकने का बोझ मस्तों का
हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
असर कर के आह-ए-रसा फिर गई
गालियाँ ज़ख़्म-ए-कुहन को देख कर देती हो क्यूँ
बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
जब बढ़ गई उम्र घट गई ज़ीस्त
ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे