गालियाँ ज़ख़्म-ए-कुहन को देख कर देती हो क्यूँ
बासी खाने में मिलाते हो तआ'म-ए-ताज़ा आज
Javed Akhtar
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मुज़्तरिब आशिक़-ए-बे-जाँ न हुआ था सो हुआ
जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
बिस्मिलों से बोसा-ए-लब का जो वा'दा हो गया
बे-तकल्लुफ़ आ गया वो मह दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न
तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
रोज़ दिल-हा-ए-मै-कशाँ टूटे
जब बढ़ गई उम्र घट गई ज़ीस्त
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
शबनम की है अंगिया तले अंगिया की पसीना
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
जो ज़ौक़ है कि हो दरयाफ़्त आबरू-ए-शराब