बे-तकल्लुफ़ आ गया वो मह दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न
रह गया पास-ए-अदब से क़ाफ़िया आदाब का
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ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ
जान देता हूँ मगर आती नहीं
सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ
झूटी बातों की तजल्ली नज़र आए ऐसे
मुझ को अपने साथ ही तेरे सुलाने की हवस
सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
जब कभी मस्की कटोरी क्या सदा पैदा हुई