झूटी बातों की तजल्ली नज़र आए ऐसे
सुब्ह-ए-काज़िब की सफ़ेदी फिरे दालानों में
Gulzar
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होती है हार जीत पिन्हाँ बात बात में
का'बे से मुझ को लाई सवाद-ए-कुनिश्त में
आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ'-रू
ख़ूब ताज़ीर-ए-गुनाह-ए-इश्क़ है
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे
कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़
मलते हैं ख़ूब-रू तिरे ख़ेमे से छातियाँ
शब के हैं माह मेहर हैं दिन के
अशआ'र मेरे सुन के वो ख़ामोश हो गया
आशिक़ ही फ़क़त नहीं है जंजालों में
ऐ बुत जो शब-ए-हिज्र में दिल थाम न लेते