मलते हैं ख़ूब-रू तिरे ख़ेमे से छातियाँ
अंगिया की डोरियाँ हैं मुक़र्रर क़नात में
Anwar Masood
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Jaun Eliya
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Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
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Ahmad Faraz
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गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
हल्क़ा हल्क़ा घर बना लख़्त-ए-दिल-ए-बेताब का
पेच फ़िक़रे पर किया जाता नहीं
क़ैदी हूँ सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पहले
काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में
लगाईं ताक के उस मस्त ने जो तलवारें
जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
दौलत के दाँत कुंद किए मेरे हिर्स ने
ख़ाकसारी से जो ग़ाफ़िल दिल-ए-ग़म्माज़ हुआ
हाल-ए-पोशीदा खुला सामान-ए-इबरत देख कर
खाते हैं अंगूर पीते हैं शराब
राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया